पूरा 1870 का दशक देश के लिए तबाही से भरा हुआ था. 1876-1878 के बीच देश के मैसूर और बॉम्बे के इलाके में भीषण अकाल पड़ा था. कई परिवार भेंट चढ़ गए थे इसकी. लेकिन इसके पहले और बाद के सालों तक असर दिखाई पड़ा था. 1873-74 में बिहार में अकाल पड़ा था. बंगाल ने मदद पहुंचा दी थी. तो बहुत ज्यादा बुरा असर नहीं पड़ पाया था. लेकिन मद्रास और बॉम्बे इतने सौभाग्यशाली नहीं थे. कई लोग मारे गए. कुल अनुमान 60 लाख से एक करोड़ तक का रखा गया. कई परिवार अपने अपने घर छोड़ संन्यासियों का जीवन काटते हुए ज़िन्दगी बिताने को मजबूर थे. मांग -मांग कर खाने से उनका काम चल रहा था.

इन्हीं में शामिल थे पुराणिक अनंत शास्त्री डोंगरे. उनकी पत्नी. लक्ष्मीबाई डोंगरे. बेटा श्रीनिवास डोंगरे. बड़ी बेटी. सबसे छोटी बेटी रमा डोंगरे. महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण. अनंत शास्त्री डोंगरे वेद-पुराण पढ़े थे. लोगों को सुनाकर घर का काम चलता था. अपनी पत्नी को संस्कृत पढ़ाई उन्होंने. इस बात से बिरादरी वाले खासे नाराज़ हुए थे. उनसे दूरी बनाए रखने के लिए वो लोग संतों की तरह घूम-घूम कर जीवन काटने लगे. लेकिन मद्रास पहुंचते-पहुंचते पंडित अनंत शास्त्री की हिम्मत जवाब दे गई. खाने-पीने को कुछ था नहीं. गरीबी बढ़ गई थी. जो कुछ जमा-जत्था था सब दान पुण्य में निकल गया था.उम्र हो चली थी. दिखाई देना बंद हो चुका था. एक मौके पर तो पूरे परिवार ने बैठ कर इंतज़ार किया कि कोई जंगली जानवर आकर उन्हें खा ले.

इसी तरह झेलते-झेलते एक दिन अनंत शास्त्री गुज़र गए. उनकी मौत के छह हफ्ते बाद ही उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई भी चल बसीं. जहां उनकी मौत हुई, वहां से श्मशान घाट कुछ दूरी पर था. वहां तक ले जाने के लिए कंधे कम पड़ रहे थे. कोई कंधा देने को तैयार नहीं था, पैसे भी नहीं थे कि किसी को दक्षिणा दी जा सके. किसी तरह दो ब्राह्मण तैयार हुए. तीसरा व्यक्ति श्रीनिवास. और चौथी रमा. लम्बाई कम थी. कंधे पर अर्थी झुक रही थी. हारकर उसका हत्था उन्होंने अपने सिर पर रख लिया. इस तरह अपनी मां को कंधा देकर रमा अंतिम संस्कार के लिए ले गईं.

और हमेशा हमेशा के लिए एक मिसाल खड़ी कर गईं. लेकिन ये उनके जीवन का पहला पड़ाव नहीं था जहां उन्होंने इतिहास रचा. अभी कई और ऐसे मौके आने थे.

रमा के पिता ने उन्हें संस्कृत तब पढ़ाई थी जब महिलाओं का संस्कृत पढ़ना निषिद्ध था. उन्होंने अपनी पत्नी को भी संस्कृत सिखाई. जब उस समय के ब्राह्मण अड़ गए, तो उन्होंने अपने तर्क के बचाव के लिए शास्त्रों में लिखी हुई बातों का हवाला दिया. रमा जल्दी ही सीख गईं. कहीं कहीं ये लिखा मिलता है कि 12 साल की उम्र तक उन्होंने 18000 श्लोक याद कर लिए थे भागवत पुराण के. अपने माता-पिता और बहन की मौत के बाद अपने भाई श्रीनिवास के साथ रमा निकल गईं पदयात्रा पर. घुमंतू साधुओं जैसा जीवन जीते हुए. कभी कोई काम मिल जाता तो कर लेते. लेकिन इतना पैसा कभी नहीं हो पाया कि कुछ आराम मिले. कुछ साध पूरी हो. लगभग चार हजार मील की यात्रा उन दोनों ने पैदल तय की. पानी में भिगोया अन्न नमक मिलकर खा लिया करते थे. ऐसे ही घूमते-घूमते कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुंचे. वहां पर रमा की धाराप्रवाह संस्कृत देखकर वहां के विद्वान् दंग रह गए. उन्होंने कहा, साक्षात सरस्वती आ गई हैं हमारे बीच. इस तरह रमा को सरस्वती उपनाम मिला. कुछ समय बाद एक बंगाली भद्रलोक ने उनको पंडिता की उपाधि दी. इससे पहले केवल पंडित की ही उपाधि दी जाती रही थी. रमा पहली महिला थीं जिनको ये उपाधि मिली. कलकत्ता में रहकर उन्होंने कई लोगों से मुलाक़ात की. क्रिश्चियन धर्म के संपर्क में भीआईं. ब्राह्मो समाज से जुड़ीं.

1880 में रमा के भाई श्रीनिवास की मृत्यु हो गई. इसके बाद रमा ने बाबू बिपिन बिहारी दास मेधावी से शादी कर ली. कुछ जगहों पर इन्हें कायस्थ लिखा गया है. कहीं शूद्र बताया गया है. अंतरजातीय विवाह था. एक ब्राह्मण के लिए उस समय अपने से नीची जाति में शादी करना समाज में कड़ी आलोचना का बायस बन जाता था. दोनों की एक बेटी हुई, मनोरमा. लेकिन इसके एक साल बाद ही रमाबाई (बाई उन्हें आदर से कहा जाता था) के पति गुज़र गए. उन्हें कॉलरा हो गया था. पति की मौत के बाद अपनी बेटी के साथ वो मद्रास चली गईं. वहां से पूना (आज का पुणे) आईं. जस्टिस रानाडे ने रमाबाई को अपने यहां महिलाओं की मुक्ति पर लेक्चर देने के लिए बुलाया.

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रमाबाई ने आर्य महिला समाज की स्थापना की. धीरे-धीरे रमाबाई का ईसाई धर्म की तरह झुकाव हुआ. कन्वर्ट होने का सोचने लगीं. मालूम था, इस कदम का बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा अपने देश में. लेकिन सब कुछ पेर रखकर 1883 में ईसाई धर्म अपना लिया उन्होंने.

1884 के सितम्बर में चेलटेनहैम लेडीज़ कॉलेज़, इंग्लैंड गईं. संस्कृत और मैथ्स पढ़ाया. दो साल बाद अमेरिका गईं. महीना था फरवरी. साल 1886. मौका था फिलाडेल्फिया के विमेंस मेडिकल कॉलेज में हो रहा एक महत्वपूर्ण ग्रेजुएशन. आनंदीबाई जोशी का. पहली भारतीय महिला जिसने वेस्टर्न मेडिसिन में ट्रेनिंग से मेडिकल डिग्री ली थी. पहले तो रमाबाई इंग्लैंड लौटने वाली थीं. लेकिन अमेरिका उन्हें भा गया. और वो वहीं रुक गईं. उन्होंने किताब लिखी- द हाई कास्ट हिन्दू वुमन. ये किताब उन्होंने आनंदीबाई जोशी को समर्पित की. आनंदी अपनी डिग्री मिलने के छह महीने के भीतर ही गुज़र गई थीं.

1889 में रमाबाई वापस भारत आईं. आने के छह हफ़्तों के भीतर ही उन्होंने शारदा सदन की स्थापना की. ये स्कूल उन्होंने उन महिलाओं के लिए खोला जो विधवा थीं, और उस समय समाज में उनके लिए कोई सम्मानजनक जगह नहीं थी. ये विधवाएं ऊंची जाति की थीं, और अपने आस-पास के समाज के शोषण की शिकार थीं. स्कूल सिर्फ तीन छात्राओं के साथ शुरू हुआ था, लेकिन पहला साल ख़त्म होते होते 25 छात्राएं आ गई थीं. इनमें से पांच स्कूल में ही रहती थीं. साल भर में रेजिडेंस में 18 छात्राएं आ गई थीं. इसके बाद रमाबाई पूना चली आईं.

मुक्ति मिशन की शुरुआत रमाबाई ने की. अपने बेटी मनोरमा के साथ काम में लगी रहीं. अपने ईसाई धर्म को भी एक्सप्लोर करती रहीं. 1921 में बेटी मनोरमा गुज़र गईं, उनके इस तरह जाने को रमाबाई झेल नहीं पाईं. अगले साल 1922 में वो भी गुज़र गईं. पर अपना नाम इतिहास में दर्ज करा गईं.

Source – Odd Nari

   
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