कम बोलो, कम हंसो, कम घूमो, बीच में मत बोलो, जबरन मत उछलो जैसी बातें ज्यादातर घरों में एक लड़की को बोली जाती है. बार-बार याद दिलाया जाता है कि लड़की हो, दूसरे के घर जाना है. यहां एडजस्ट नहीं कर पाओगी, तो वहां कैसे करोगी. कोई ये नहीं कहता कि हर हाल में कही भी एडजस्ट करना गलत है. इसीलिए उसे सभ्य, सुशील, संस्कारी, संकोची यानी गाय बनकर रहना सिखाया जाता है, जिससे उसे कल लोगों की हां में हां मिलाने में दिक्कत न हो.
लेकिन अगर लड़की पहले से ही शांत हो तो उसे कभी खुलकर अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया जाता. समझा जाता है कि वो तो कोई भी फैसला आंख बंद करके मान लेगी, क्योंकि वो बड़ों के सामने कुछ बोलती नहीं है. और यही तो एक अच्छी लड़की की पहचान है. यही तो संस्कार हैं.
घर में ही अगर दो लोग बात कर रहे हों, और उसमें ‘बड़बोली’ लड़की अगर गलती से अपनी राय दे दे या फिर गलत बात को सही करने की कोशिश करे, तो उसे तुरंत चुप कराकर बैठा दिया जाता है. साथ ही कहा जाता है कि हर समय मुंह मत चलाया करो, ये ‘लड़की जाति’ के लिए अच्छी बात नहीं है.
इतना ही नहीं, उसे पड़ोस की लड़की का उदाहरण तक दे दिया जाता है, कि उसे देखो, कितनी गंभीर है, घर का पूरा काम कर लेती है, एक आवाज तक नहीं निकलती है, चुपचाप घर में रहती है और कोई जान भी नहीं पाता कि वो भी है या नहीं. तो थोड़ी ‘गंभीरता’ लाओ. एक बार फिर संकोची और शर्मीली लड़की को आप पर हावी करने की कोशिश की जाती है.
हालांकि ये घर के और लोगों यानी पुरुष जाति पर लागू नहीं होता है. और हो भी क्यों भई, वो तो घर के मुखिया हैं, पूरे समाज की समझ जो है उन्हें. इसलिए कल भी बाप-दादा फैसले लेते थे और मांए घर के दरवाजे के पीछे घूंघट में खड़ी फैसले सुनतीं थीं. हां में हां मिलाती थीं. आज वही उदाहरण दादी-ताई अपनी बहुओं और पोतियों को दिया करती हैं…
‘हमने भी घर संभाला है, एक शब्द नहीं निकलता था, कोई जान नहीं पाता था कि हम घर पर हैं. ससुर ही करते थे फैसले, जो सास और हम सबको मानने पड़ते थे. पर आज तो कोई सुनता ही नहीं है, बहुएं भी चपड़-चपड़ जबान चलाती हैं, उनकी देखा-देखी ये लड़कियां भी बोलती हैं. कुछ भी कहो तो तुरंत अड़ जाती हैं. पुराने ज़माने में ऐसा नहीं होता था, फलाने के घर ऐसा नहीं होता है.’
इन सब बातों से एक बात साफ हुई कि अगर लड़की ने एक चूं न की और सहमति नहीं दिखाई, तो वो अच्छी. लेकिन अगर एक शब्द भी बोल दिया तो, बिगड़ेल और खराब है. इसीलिए समाज कम बोलने वाली, हर बात पर हंस कर गर्दन हिलाने वाली संकोची लड़की ही स्वीकारी जाती है. शायद लोगों को लगता है कि अगर लड़की बोलना सीख जाएगी या बोलेगी तो उनकी बात काटी जाने लगेगी, उनका महत्व कम हो जाएगा.
औरतें दुनिया में जीत जाएं, लेकिन कई बार घरों में ही हार जाती हैं. घरों में ही कई मुद्दों में उनकी राय ली ही नहीं जाती, क्योंकि दरवाजे या पर्दे के पीछे छिपी हुई ज्यादा अच्छी लगती है.
ज्यादा बोलने वाली लड़की को ‘फूहड़’ या ‘बद्तमीज’ समझा जाता है, जो पितृसत्तात्मक समाज में आदर्श और संस्कारी नहीं होती हैं. यही हाल पहले भी था और अब भी है. लड़कियों को कमतर माना जाता है. भले कई लोगों ने अपनी सोच बदल ली हो, पर आज भी कई जगह पर संकोची और चुप रहने वाली लड़की ही पसंद की जाती है.
Source – Odd Nari
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