अनंत विजय हमारे दौर के बड़े लिक्खाड़ हैं. एक स्तंभकार, आलोचक, लेखक, वक्ता के रूप में उन्होंने अपना व्यापक प्रभाव छोड़ा है. खूब पढ़ते हैं, और उतना ही लिखते भी हैं. बतौर लेखक जहां वह अपने विषय को लेकर बहुत स्पष्ट हैं, वहीं बतौर आलोचक उन्होंने बड़े बड़े लेखकों की बखिया उधेड़ी है. हाल के दिनों में वह अपने दक्षिणपंथी लगाव को लेकर भी काफी चर्चा में रहे, हालांकि वह इसे न तो स्वीकारते हैं, न ही नकारते.
बहुत सारे विषयॉ पर उनकी सोच बेहद स्पष्ट हैं. संभवतः इसकी वजह उनका वह पढ़ाकूपन है, जिसकी तारीफ कभी राजेंद्र यादव व नामवर सिंह तक ने की थी. अनंत विजय इसे स्वीकारें या नहीं, पर उन्हें गांधी से भी उतना ही लगाव है, जितना संघ और उसकी विचारधारा से. वह कहते भी हैं, गांधी जी की नीतियों को संघ ने जितना अपनाया व अमल किया, उतना कांग्रेस ने नहीं. विचारों की इसी स्पष्टता को लेकर कई बार वह आलोचना का भी शिकार हुए.
एक बार उन्होंने राजस्थान में यह कह दिया था कि हमारे समाज में व्यक्ति पूजा की हद यहां तक है कि हम हारे हुए नायकों का भी गौरवगान करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते. मूर्तियां लगाते हैं, उनके नाम से पुल बनाते हैं. तब माना यह गया कि उनका इशारा महाराणा प्रताप की तरफ है. खूब आलोचना हुई पर वह पीछे नहीं हटे. लिखना- और अपने लिखे पर अडिग रहना, बोलना- और अपने वक्तव्य में किसी को न बख्शने की अपनी प्रवृत्ति के चलते ही वह साहित्य महोत्सवों का चर्चित चेहरा हैं.
हालांकि इससे अनंत ने जिस तेजी से मित्र बनाए, उतनी ही तेजी में विरोधी. पर इन सबके बीच जो एक चीज निर्विवाद रूप से उनके साथ कायम रही, वह है साहित्य से उनका जुड़ाव और उसकी प्रोन्नति को लेकर उनकी पहल. वह जिस अखबार से जुड़े हैं उसमें नियमित कॉलम लिखते हैं, और साहित्य को मुख्यधारा में लाने के लिए कई तरह की योजनाओं से जुड़े हैं. ‘प्रसंगवश’, ‘कोलाहल कलह में’, ‘विधाओं का विन्यास’, ‘बॉलीवुड सेल्फी’ और ‘लोकतंत्र की कसौटी’ जैसी पुस्तकों के लेखक; ‘मेरे पात्र’, ‘कहानी’, ‘कोलाहल में कविता’, ’21वीं सदी की 21 कहानियां’; के संपादक और ‘बीवी फातिमा और बादशाह के बेटे’ के अनुवादक अनंत की वाणी प्रकाशन से ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ नाम से नई आलोचनात्मक किताब आई है.
इस किताब के परिचय के रूप में फ्लैप पर लिखा है, “अनंत विजय की पुस्तक का शीर्षक ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ एक बार पाठक को चौंकाएगा. क्षणभर के लिए उसे ठिठक कर यह सोचने पर विवश करेगा कि कहीं यह पुस्तक मार्क्सवादी आलोचना अथवा मार्क्सवादी सिद्धान्तों की कोई विवेचना या उसकी कोई पुनर्व्याख्या स्थापित करने का प्रयास तो नहीं है. मगर पुस्तक में जैसे-जैसे पाठक प्रवेश करता जायेगा उसका भ्रम दूर होता चला जायेगा. अन्त तक आते-आते यह भ्रम उस विश्वास में तब्दील हो जायेगा कि मार्क्सवाद की आड़ में इन दिनों कैसे आपसी हित व स्वार्थ के टकराहटों के चलते व्यक्ति विचारों से ऊपर हो जाता है. कैसे व्यक्तिवादी अन्तर्द्वन्द्वों और दुचित्तेपन के कारण एक मार्क्सवादी का आचरण बदल जाता है.
“पिछले लगभग एक दशक में मार्क्सवाद से हिन्दी पट्टी का मोहभंग हुआ है और निजी टकराहटों के चलते मार्क्सवादी बेनकाब हुए हैं, अनंत विजय ने सूक्ष्मता से उन कारकों का विश्लेषण किया है, जिसने मार्क्सवादियों को ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहाँ यह तय कर पाना मुश्किल हो गया है कि विचारधारा बड़ी है या व्यक्ति. व्यक्तिवाद के बहाने अनंत विजय ने मार्क्सवाद के ऊपर जम गयी उस गर्द को हटाने और उसे समझने का प्रयास किया है. ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ दरअसल व्यक्तिवादी कुण्ठा और वैचारिक दम्भ को सामने लाता है, जो प्रतिबद्धता की आड़ में सामन्ती, जातिवादी और बुर्जुआ मानसिकता को मज़बूत करता है. आज मार्क्सवाद को उसके अनुयायियों ने जिस तरह से वैचारिक लबादे में छटपटाने को मजबूर कर दिया है, यह पुस्तक उसी निर्मम सत्य को सामने लाती है. एक तरह से कहा जाये तो यह पुस्तक इसी अर्धसत्य का मर्सिया है.
फिडेल कास्ट्रो के चेहरे से भी क्रांतिकारी नायक का नकाब लगातार उतरता रहा है जिसपर चर्चा नहीं हुई. फिडेल कास्ट्रो ने शादीशुदा होते हुए एक शादीशुदा महिला से ना केवल संबंध बनाए बल्कि उनके एक बच्चे के पिता भी बने. नटालिया नाम की इस महिला और कास्ट्रो के बीच के प्रेम पत्रों के सार्वजनिक होने के बाद इस विवाहेत्तर संबंध का खुलासा हुआ. जब नटालिया की मौत हुई तो उन्हें इस बात का मलाल था कि जिस शख्स ने 1953 में आक्रमण की रणनीति उनके घर पर रहकर बनाई वही शख्स जब दो साल बाद क्यूबा की सत्ता पर काबिज होते है तो उसको भूल जाता है. भूल तो वो अपनी बेटी को भी जाता है. यह मार्क्सवाद की एक गिलास पानी की अवधारणा का निकृष्टतम रूप है. अब उससे भी एक खतरनाक बात सामने आई है.
सत्रह साल तक क्यूबा के राष्ट्रपति फिडेल कास्ट्रो के अंगरक्षक रहे जुआन रियेनाल्डो सांचेज की किताब- द डबल लाइफ ऑफ फिडेल कास्ट्रो-से यह खुलासा किया है कि किस तरह से कास्ट्रो ने एक ड्रग्स कारोबारी को पचहत्तर हजार डॉलर के एवज में क्यूबा में ऐश करने की अनुमति दी. इस किताब में इस बात के पर्याप्त सबूत दिए गए हैं कि किस तरह से फिडेल कास्ट्रो अपने सीक्रेट रूम में बैठकर कोकीन कारोबारी के बारे में सौदेबाजी कर रहे थे. इस किताब के लेखक ने इस बात का भी खुलासा किया कि कास्ट्रो के हवाना में बीस आलीशान कोठियां हैं, वो एक कैरेबियन द्वीप के भी मालिक हैं. इस तरह के खुलासों से साफ है कि मार्क्सवाद की आड़ में उनके रहनुमा रहस्यमयी सेक्सुअल लाइफ से लेकर तमाम तरह के भौतिकवादी प्रवृत्तियों को अपनाते हैं और विचारधारा की आड़ में व्यवस्था बदलने का सपना दिखाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं.
जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में लेनिन ने कहा था कि वहां के लेफ्टिस्ट खुद को वामपंथी नहीं मानते हैं और अपने आप को सैद्धांतिक आधार पर प्रतिपक्ष करार देते हैं. लेनिन ने उस वक्त जर्मनी के वामपंथियों की उस प्रवृत्ति को इंफैन्टाइल डिसऑर्डर ऑफ लेफ्टिज्म कहा था. अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा बताते हुए जिस तरह से करीब दो दर्जन लेखकों ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाया था उसको देखकर लेनिन के शब्द उधार लेकर कहा जा सकता है कि पुरस्कार वापसी के ये लेखक भी इंफैन्टाइल डिसऑर्डर के शिकार थे.
यहां भी कमोबेश सभी लेखकों ने खुद को सिद्धांत का विरोध पक्ष करार दिया है. अब अगर हम प्रतिपक्ष के सैद्धांतिक पक्ष को परखते हैं तो यह साफ तौर पर उभरता है कि वो देश, काल और परिस्थिति के हिसाब से अपना पक्ष बदलते रहे हैं. आज जिन लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा नजर आ रहा है उनमें से ज्यादातर लोग इमरजेंसी के दौर में लिख रहे थे. यह बात बहस से परे है कि भारत में अगर अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा खतरा उत्पन्न हुआ था तो वो इमरजेंसी का दौर था. उस वक्त तो हमारे मौलिक अधिकारों पर भी पहरा लगा दिया गया था. अब जरा उस दौर में लेफ्टिस्टों को याद करिए कि उनका रुख क्या था. दिल्ली में उपन्यासकार भीष्म साहनी की अध्यक्षता में हुई प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में इमरजेंसी का समर्थन किया गया था और उसको अनुशासन पर्व करार दिया था. उस वक्त किसी भी लेखक की अंतरात्मा की आवाज नहीं जागी थी और किसी ने पुरस्कार वापसी का कदम नहीं उठाया था. क्योंकि उस वक्त इन संस्थाओं पर वामपंथियों का कब्जा था.
यह वही दौर था जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के समर्थन के एवज में वामपंथियों को साहित्यिक संस्थाओं की जागीरदारी सौंप दी थी. अब अगर हम चौरासी के सिख विरोधी दंगों के बाद की बात ना भी उठाएं, हम दो हजार दो के गुजरात दंगों के दौरान लेखकों की पुरस्कार वापसी के बाबत सवाल ना भी पूछें लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों की बात तो उठानी चाहिए. दादरी के पास इखलाक की हत्या को भी पुरस्कार वापस करनेवालों ने मुद्दा बनाया है. दादरी से चंद किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर के दंगों में बासठ लोगों की हत्या की गई. उसके बाद अखिलेश सरकार ने अपने सालाना साहित्यक पुरस्कार का एलान किया. गाजे बाजे के साथ हिंदी के लेखकों ने जाकर यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कर कमलों से चार लाख से लेकर चालीस हजार तक के दर्जनों पुरस्कार लिए. तब किसी को कुछ भी याद नहीं आया. याद तो तब भी नहीं आया था जब कॉमरेड पानसरे की हत्या की गई थी या सही मायनों में बुद्धिवादी दाभोलकर साहब का कत्ल किया गया. ना तब किसी ने साहित्य अकादमी पर सवाल उठाए और ना ही साहित्य अकादमी से स्टैंड लेने का दुराग्रह किया. क्योंकि उस वक्त की सरकारों से प्रत्यक्ष रूप से विचारधारा को और परोक्ष रूप से स्वार्थ को कोई खतरा नहीं था.
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एक नजर डालते हैं पुरस्कार वापस करनेवाले लेखकों पर. उदय प्रकाश तो योगी आदित्यनाथ से पुरस्कार लेकर इस योग्य नहीं रह गए हैं कि उनपर चर्चा की जाए या उनको गंभीरता से लिया जाए. बात करेंगे अशोक वाजपेयी और कृष्णा सोबती की. हालांकि आपको याद दिलाते चलें कि उदय प्रकाश, अशोक वाजपेयी को पॉवर ब्रोकर मानते रहे हैं और दावा करते हैं कि उनको हिंदी में कोई गंभीरता से नहीं लेता लेकिन यह भी दिलचस्प है कि उदय प्रकाश को जिस जूरी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया उसके अशोक वाजपेयी सदस्य थे. दरअसल इन साहित्यक पुरस्कारों की साख खत्म हो चुकी है.
एक उदाहरण देखिए कि जब सीताकांत महापात्र संस्कृति मंत्रालय के सचिव थे तो उनको ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलता है और उसी मंत्रालय में संयुक्त सचिव अशोक वाजपेयी को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलता है. क्या इसके पीछे मेधा या प्रतिभा है या कुछ और. इसके अलावा अशोक वाजपेयी को दयावती मोदी पुरस्कार मिला था तब उसको लेकर उठे विवाद को दोहराने की आवश्यकता नहीं है. अशोक वाजपेयी कितने संवेदनशील हैं इसको समझने के लिए भोपाल गैस त्रासदी के बाद आयोजित कवि सम्मेलन के दौर के उनके बयान को याद करना चाहिए. तब अशोक वाजपेयी ने कहा था कि मरने वाले के साथ मरा नहीं जाता है. इस तरह के बयानों के बाद अब जब वही शख्स संवदेनशीलता की उम्मीद करता है तो उसका अपेक्षित असर नहीं होता है.
कहना ना होगा कि अशोक वाजपेयी के बयानों और पुरस्कार लौटाने का भी उतना असर नहीं पड़ा. दरअसल साहित्यक पुरस्कारों की साख पिछले कई सालों में छीजती चली गई. इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं, उसपर लेखक समुदाय को विचार करना चाहिेए, देश की बहुलतावादी संस्कृति पर खतरे के बाद कृष्णा सोबती ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान किया, एक जमाने में कृष्णा जी ने पुरस्कारों को लेकर कहा था कि चंद साहित्यक लोगों को ही दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बार में जाने की सहूलियत है जहां पर साहित्य के कई मसले तय होते हैं, अब अगर साहित्यक पुरस्कार आईआईसी की बार में तय होते हैं तो उसको लौटा ही दिया जाना चाहिए, दरअसल इस विरोध के पीछे की मंशा को भी समझने की जरूरत है. केंद्र सरकार ने फोर्ड फाउंडेशन समेत कई गैर सरकारी संगठनों के विदेशी चंदों पर रोक लगा दी है. इस बात की भी पड़ताल होनी चाहिए कि सरकार के इस कदम के बाद साहित्यकारों के विरोध ने जोर क्यों पकड़ा. क्योंकि बात निकलेगी को दूर तलक जाएगी.
Source – Aaj Tak