आज महिलाएं पढ़ती-लिखती हैं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हैं. लेकिन यहां पिछले कुछ समय से एक और परिवर्तन देखने को मिल रहा है. शुरुआत में जहां महिलाएं एक सपोर्टिव अर्निंग मेंबर के रूप में देखी जाती थीं, वहीं अब वो घर की मुख्य कमाऊ सदस्य बनती जा रही हैं.
किस तरह से बदला है परिदृश्य?
– आज महिलाएं अपनी पढ़ाई और करियर को भी उतना ही महत्व देती हैं, जितना शादी को.
– मात्र पैसा कमाना ही उद्देश्य नहीं है अब महिलाओं का, वो करियर प्लानिंग करती हैं. करियर में आगे बढ़ने का सपना देखती हैं.
– अब कॉम्प्रोमाइज़ कम करती हैं.
– पैसा कमाने की अहमियत समझती हैं.
– अपने लिए सम्मान चाहती हैं.
– घर ही नहीं, अब बाहर की ज़िम्मेदारियां भी निभाती हैं.
– पहले बेटा ही बुढ़ापे की लाठी माना जाता था, अब बेटियां भी वो भूमिका निभा रही हैं और उनसे उम्मीदें भी बढ़ी हैं.
– कई बार तो पैरेंट्स की देखरेख के लिए शादी न करने का निर्णय भी लेती हैं.
– शादी से कहीं ज़्यादा तवज्जो अपनी मर्ज़ी से ज़िंदगी जीने को देने लगी हैं.
– शादी के बाद ससुराल में भी सपोर्ट करती हैं.
– घर का लोन हो या बच्चों की पढ़ाई, सभी में बराबर की ज़िम्मेदारी लेती हैं.
– लेकिन इसका ख़ामियाज़ा भी भुगतना पड़ रहा है, क्योंकि पुरुष थोड़े लापरवाह होते जा रहे हैं.
– वो अपनी ज़िम्मेदारियां भी अपनी कमाऊ पत्नी पर ही डालते जा रहे हैं.
– अपने करियर को लेकर थोड़े कैज़ुअल हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि पत्नी अच्छा कमा रही है.
– कहीं-कहीं पत्नी का अच्छा कमाना और बेहतर करियर रिश्तों को तोड़ भी रहा है. कुछ पुरुषों का अहम् इतना बड़ा होता है कि वो पत्नी की कामयाबी बर्दाश्त नहीं कर पाते.
महिलाओं पर दबाव बढ़ गया है…
– इस बदलते परिदृश्य में महिलाओं पर दबाव व ज़िम्मेदारियां बढ़ रही हैं.
– भले ही वो घर की मुख्य कमाऊ सदस्य ही क्यों न हों, घर के काम की ज़िम्मेदारी अब भी उन्हीं की है.
– बच्चों की परवरिश से लेकर रिश्ते निभाने का दायित्व उन्हीं पर है.
– इन सबके बीच उनकी शारीरिक ही नहीं, मानसिक हेल्थ पर भी प्रभाव पड़ रहा है.
– चूंकि अब वो कमाती हैं, तो पति भी आर्थिक ज़िम्मेदारियां नहीं निभाते, जिसका बोझ इन्हीं के कंधों पर आ जाता है.
स़िर्फ नौकरी ही नहीं, बिज़नेस में भी हाथ आज़मा रही हैं महिलाएं…
– महिलाओं के बढ़ते वर्चस्व को देखते हुए अब अधिकांश बैंक, सरकारी योजनाएं और यहां तक कि ग़ैरसरकारी वित्तीय संस्थान भी उनकी मदद के लिए आगे आ रहे हैं.
– फुलर्टन इंडिया क्रेडिट कंपनी में रूरल बिज़नेस के प्रमुख विशाल वाधवा का कहना है कि समाज में अब बड़े पैमाने पर बदलाव आया है. आज के दौर में महिलाएं घर की मुखिया बन रही हैं. वो न स़िर्फ आर्थिक तौर पर घर संभालती हैं, बल्कि फाइनेंस से लेकर कई बड़े मसलों पर निर्णय भी लेती हैं.
– महिलाओं को आगे बढ़ाने व आत्मनिर्भर होने के लिए कई स्कीम्स व योजनाएं हैं, क्योंकि अब लोग उनकी आत्मनिर्भरता को गंभीरता से लेने लगे हैं.
– स़िर्फ शहरों में ही नहीं, अब गांवों में भी महिलाएं आर्थिक आत्मनिर्भरता के महत्व को समझ रही हैं.
– यही वजह है कि अब कई वित्तीय संस्थान भी महिलाओं को सशक्त बनाने में पूरा सहयोग दे रहे हैं.
– इस सहयोग में होम लोन्स पर विशेष ऑफर्स, बिज़नेस लोन पर कम ब्याज दर, ग्रुप लोन, पर्सनल लोन, नए बिज़नेस के लिए आर्थिक सहायता या बिज़नेस एक्सपैंशन के लिए किसी तरह की मदद आदि शामिल है.
– इन सबके अलावा प्रोफेशनल ट्रेनिंग, कोर्सेस, अवेयरनेस प्रोग्राम्स, मनी मैनेजमेंट आदि संबंधी प्रशिक्षण भी संस्थाएं ग्रामीण इलाकों में देती हैं, क्योंकि आज महिलाओं की कमाई व आर्थिक आत्मनिर्भरता भी परिवार के लिए बहुत मायने रखती है.
– पारंपरिक नियमों को तोड़कर आज महिलाएं अपने परिवार की आजीविका बेहतर करने का ज़िम्मा ले रही हैं, क्योंकि अब वो अपनी स्थिति में बदलाव चाहती हैं.
– एक मशहूर लेखक व दर्शनशास्त्री ने कहा है कि सवाल यह नहीं कि कौन मुझे करने दे रहा है, सवाल यह है कि कौन मुझे रोक रहा है.
– तो अब समाज बदल रहा है, महिलाओं की ही नहीं, महिलाओं को लेकर परिवार की भी सोच बदल रही है. ऐसे में अपनी स्थिति को बेहतर बनाने का ज़िम्मा भी महिलाओं का ही है.
– अब वो मजबूर नहीं रहना चाहतीं. कठोर निर्णय लेने से भी पीछे नहीं हटतीं. लेकिन इस आर्थिक आत्मनिर्भरता और सपोर्टिव अर्निंग मेंबर से होकर मुख्य कमाऊ सदस्य बनने तक की लड़ाई में उन्हें बहुत कुछ खोना भी पड़ा है, क्योंकि आज भी परिवार व समाज से उस तरह का सहयोग नहीं मिल पा रहा, जैसा अपेक्षित था.
– महिलाओं को इस मुक़ाम को पाने की बड़ी क़ीमत अदा करनी पड़ती है, क्योंकि पुरुषों के मुक़ाबले उनसे अपेक्षाएं ज़्यादा हैं. उन्हें सहयोग कम मिलता है, उनका संघर्ष बढ़ जाता है.
– लेकिन कभी मजबूरी में, तो कभी अपनी ख़ुशी से वो इस रास्ते को अपनाती हैं और बदले में यदि थोड़ा-सा सम्मान चाहती हैं, तो इतना तो हक़ बनता ही है. परिवार और समाज से उनकी यह अपेक्षा कुछ ज़्यादा नहीं है.
Source – Meri Saheli