बुढ़ापा इंसान की उम्र का सबसे खराब दौर माना जाता है। आम हिंदुस्तानी तो इसे बुरा आपा भी कहते हैं। यानी उम्र का ये वो हिस्सा होता है जिसका आना तय है लेकिन कोई इसे जीना नहीं चाहता। बुढ़ापे में इंसान शारीरिक रूप से कमज़ोर और दूसरों पर आश्रित हो जाता है। एक रिसर्च के मुताबिक़ बुढ़ापे में कैंसर, अल्जाइमर और हड्डियों की कई बीमारियों का शिकार होकर दुनिया भर में हर रोज करीब एक लाख बुजुर्गों की मौत होती है। बुढ़ापा दुनिया भर के लिए चिंता का विषय है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक और रिसर्चर इस अवस्था से बचने के उपाय सोच रहे हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि बुढ़ापा रोकने में कुछ खास किस्म के कीड़े और थ्री-डी प्रिंटेड ऑर्गन मुख्य भूमिका निभाएंगे।

बुढ़ापा है क्या
आखिर बुढ़ापा है क्या और ये क्यों होता है। डेनमार्क के डॉक्टर कारे क्रिससेन का कहना है कि एक खास उम्र तक हमारे शरीर में कोशिकाएं बनने का सिलसिला चलता रहता है। बढ़ती उम्र के साथ ये सिलसिला कमज़ोर पड़ने लगता है और बेकार कोशिकाएं शरीर में इकट्ठा होने लगती हैं। यही कोशिकाएं आगे चलकर बुढ़ापे की वजह बनती हैं। डॉक्टर कारे खुद अपना डेनिश एजिंग रिसर्च सेंटर चलाते हैं। उनकी पहली कोशिश यही होती है कि लोगों को बीमार होने से रोका जाए। ज्यादा बीमार होने की वजह से भी बुढ़ापा जल्दी दस्तक देता है।

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक दुनिया भर में इंसान की औसत उम्र 40 साल थी, लेकिन आज लोग ज़्यादा लंबी और सेहतमंद जिंदगी जीते हैं। उत्तरी यूरोप में तो औसत उम्र 80 साल तक है। बहुत जल्द दुनिया के बाक़ी देशों में भी औसत उम्र इतनी हो जाएगा। इसकी बड़ी वजह है बीमारियों पर काबू। जब तक बीमारियों और दवाओं पर रिसर्च नहीं हुई थी बड़ी संख्या में कम उम्र में ही मौत हो जाती थी। इस तरक्की से साफ है कि इंसान बुढ़ापे को लंबे वक्त के लिए टाल सकता है। मौत का समय आने में देर कर सकता है। सेहत में बेहतरी से ऐसा मुमकिन हो सकता है और इसकी शुरुआत दांतों से हो सकती है।

अंग ट्रांसप्लांट एक रास्ता
डॉ. कारे के मुताबिक किसी की सेहत का अंदाजा उसके दांतों से लगाया जा सकता है। अगर दांत मज़बूत हैं तो आप कुछ भी अच्छी तरह चबाकर खा सकते हैं। अच्छा खाना खाएंगे तो सेहत भी अच्छी रहेगी। साथ ही आई-क्यू लेवल भी अच्छा रहता है। अब तो बुजुर्गों के दांत भी खूब मजबूत होने लगे हैं। यानि हालात बदल रहे हैं, आगे इसमें और सुधार होगा। अभी तक फ्रांस की ज्यां लुई कालमेंट के नाम दुनिया की सबसे उम्रदराज महिला होने का रिकॉर्ड दर्ज है। कालमेंट ने 1997 में 122 साल की उम्र में दुनिया छोड़ी थी। इस बात को आज बीस साल से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है और तब से अब तक सेहत और तकनीक के मोर्चे पर काफी तरक्की हो चुकीहै।

बुढ़ापे में ज्यादातर लोगों की मौत शरीर के नाजुक अंगों जैसे दिल, जिगर और गुर्दों के काम बंद करने की वजह से होती है। अगर ये नाजुक अंग हमेशा स्वस्थ रहें या इनके खराब होने पर सेहतमंद अंग ट्रांसप्लांट कर दिए जाएं तो ज्यादा वक्त जिया जा सकता है, लेकिन दुनिया में बुज़ुर्ग इतने ज्यादा हैं कि सभी के लिए ये बंदोबस्त नहीं किया जा सकता। इसके अलावा डोनर और रिसीवर का अंग एक जैसा होना भी शर्त है और ऐसा अक्सर हो नहीं पाता।

ऐसे में भारत के बायोफिजिस्ट तुहिन भौमिक ने आर्टिफिशयल एंड पोर्टेबल अंग बनाने के बारे में सोचा। उनका कहना है कि मरीज की एम.आर.आई और सी.टी स्कैन किया जाता है जिसमें अंग का सटीक साइज और आकार नजर आता है। इसी मोल्ड को कंप्यूटर में फीड करके समान आकार और साइज वाले अंग थ्री-डी प्रिंटिंग के जरिए बनाए जा सकते हैं। तुहिन भौमिक बताते हैं कि थ्री-डी प्रिंटिंग में आला दर्जे की स्याही का इस्तेमाल होता है। भौमिक ने ऐसी डिवाइस तैयार की है जिसमें प्रोटीन और मरीज के शरीर की कोशिकाओं से बनी स्याही इस्तेमाल होती है। लिहाजा बहुत ही कम संभावना है कि इस तरह के अंगों को मरीज का शरीर स्वीकार ना करे।

भौमिक और उनकी टीम भारत का पहला ह्यूमन लिवर टिशू बना चुकी है और अब उनका अगला कदम पोर्टेबल मिनिएचर लिवर बनाने का है जिसके साथ मरीज कहीं भी घूम फिर सकता है। वहीं, अगले दस साल में ऐसा लिवर तैयार करने की तैयारी है, जिसे शरीर कें अंदर फिट किया जा सकेगा। इस काम में करीब दस साल का वक्त लग सकता है। भौमिक का मानना है कि अगर ये तजुर्बा कामयाब रहा तो इंसान की उम्र 135 साल की हो जाएगी।

कितने काम के माइक्रोबायोम
हमारे शरीर के अंदर और बाहर बहुत तरह के छोटे-छोटे कीटाणु रहते हैं। ये इतने छोटे होते हैं कि हम इन्हें नंगी आंखों से नहीं देख सकते। बैक्टीरिया,फफूंद और भी कई तरह के वायरस इसी फेहरिस्त में आते हैं। साइंस की भाषा में इन्हें माइक्रोबायोम कहा जाता है। ये माइक्रोबायोम बीमारियों का कारण तो हैं ही, साथ ही हमें सेहतमंद रखने के लिए जरूरी भी हैं। हाल में हुई रिसर्च से पता चला है कि माइक्रोबायोम हमारे शरीर के लिए उतने ही जरूरी हैं जितना कि शरीर का कोई अंग। अमरीका के बेलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन की प्रोफेसर मेंग वांग रिसर्च के जरिए ये पता लगाने की कोशिश कर रही हैं कि क्या माइक्रोबायोम के जरिए बुढ़ापे के असर को कम किया जा सकता है।

रिसर्च के लिए उन्होंने खास किस्म के कीड़ों को चुना जिनकी खुद की उम्र बहुत छोटी थी। प्रोफेसर वांग ने कीड़ों की आंत में पलने वाले बेक्टीरिया को तोड़कर दूसरी किस्म के कीड़ों में डाल दिया। तीन हफ्ते बाद उन्होंने देखा कि जिन कीड़ों को इतने वक्त में मर जाना चाहिए उनमें से बहुत से कीड़े ना सिर्फ जिंदा थे बल्कि सेहतमंद थे। अब प्रोफेसर मेंग वांग यही तजुर्बा चूहों पर कर रही हैं। अगर ये तजुर्बा कामयाब रहा तो ऐसी गोलियां बना ली जाएंगी जिनके खाने से इंसान की उम्र 100 से 200 साल तक हो सकेगी।

हमारा शरीर छोटी-छोटी कोशिकाओं से मिलकर बनता है। हर एक कोशिका की एक खास उम्र होती है जो समय के साथ बूढ़ी होकर निष्क्रिय हो जाती हैं और शरीर में जमा रहती हैं। ये अन्य स्वस्थ कोशिकाओं को प्रभावित करने लगती हैं। शरीर एक हद तक इनकी मार झेलता है लेकिन एक समय बाद हिम्मत हार जाता है।

इंग्लैंड की एक्सटर यूनिवर्सिटी में मॉलिक्युलर जेनेटिक्स की प्रोफेसर लोरेना हैरिस का कहना है कि बहुत जल्द रिसर्च के जरिए ऐसे रसायन तैयार कर लिए जाएंगे जिनकी मदद से बूढ़ी हो रही कोशिकाओं को फिर से जवान किया जा सकेगा और मौजूदा कोशिकाओं को बूढ़ा होने से रोका जकेगा। इससे ना सिर्फ उम्र में इजाफा होने की उम्मीद है बल्कि बहुत सी बीमारियों से लड़ने में भी मदद मिलेगी।

सवाल अंत में यही है कि इन तजुर्बों के बाद अगर कामयाबी मिल भी जाती है तो और कितने साल हम अपनी उम्र में जोड़ सकते हैं। तुहिन भौमिक की बात पर विश्वास किया जाए तो 135 साल की उम्र तो कम से कम हर इंसान को मिल ही जाएगी, लेकिन जिंदगी का अंत तो मौत ही है। मौत से कोई भी रिसर्च किसी भी जीव को नहीं बचा सकती। जिंदगी छोटी हो या बड़ी वो सेहतमंद, खुशहाल और कामयाब होनी चाहिए।

Source- Amarujala

   
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