जिंदगी का वो सबक जो ‘आनंद’ ने सिखाया

“कोई तनाव नहीं” मेरा तकियाकलाम है और “जिंदगी बड़ी होनी चाहिये लंबी नहीं” मेरा फलसफा. इस हिसाब से अगर ‘आनंद’ मेरी पसंदीदा फिल्म होती है तो कोई हैरानी की बात तो नहीं है न!

आज इस फिल्म के रिलीज़ हुए 48 साल पूरे हो गए. मैंने जब पहली बार ये फिल्म देखी थी तो यही तीसरी कक्षा में रहा होउंगा. ये फिल्म क्या देखी, समझो इलहाम हो गया. गदहापच्चीसी की उम्र में जिंदगी के मायने खोजने लगा और अब तक खोज ही रहा हूं. अब तक जो पाया है, वो यहां साझा कर दे रहा हूं. वरना क्या पता जिंदगी कब किसे आनंद सहगल बना कर ‘मौत एक कविता है’ कहलवा दे! है कि नहीं बाबू मोशाय!

जिंदगी को लेकर जो सबसे पहली बात मैं समझ पाया था वो ये थी कि सिर्फ जिंदगी के साल बढ़ाकर जीवन को बड़ा नहीं बनाया जा सकता. अगर ऐसा होता तो महज 16 साल की जिंदगी जीकर हिटलर के यातना शिविर में जान गंवाने वाली ‘द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल’ की लेखिका ऐन फ्रैंक और सिर्फ 24 साल की उम्र में गांधीजी की लोकप्रियता को टक्कर देने वाले क्रान्तिकारी भगत सिंह जैसे लोग कब के भुला दिए गए होते.

Also Read – HOW TO FLUSH KIDNEY STONES NATURALLY WITH JUST FOUR INGREDIENTS

लंबे समय तक मैं सिकंदर के जीवन को बड़ा समझता रहा. लेकिन एकाएक मुझे ‘मालगुड़ी डेज़’ का वो बूढ़ा भिखारी, जो अपने हिस्से का आधा खाना एक गरीब बच्चे को खिला देता था और अपने फटे कंबल में अपने कुत्ते को जगह देता था, मुझे सिकंदर से बड़ा लगने लगा. लंबे समय तक मेरी एक बड़ी दुविधा ये भी रही कि बड़े जीवन का पैमाना महानता को बनाऊं या बड़प्पन को! सच तो ये है कि महानता और बड़प्पन में बस धागे भर का फर्क है. जहां नि:स्वार्थ सादगी बड़प्पन ज़ाहिर करती है, वहीं सक्षम सादगी महानता दिखाती है. ‘मालगुड़ी डेज़’ के बूढ़े भिखारी और महात्मा गांधी की सात्त्विकता में यही बड़प्पन और महानता का ही तो अंतर है!

लेकिन कभी-कभी जब क्षमता सादगी के नकली लिबास में नुमायां होती है तो हमारा सामना अति-महत्वाकांक्षी लोगों से होता है. जिनकी गुप्त महत्वाकांक्षा होती है कि उन्हें महत्वाकांक्षाविहीन समझा जाये. सीधा-सीधा कहूं तो अगर आदमी के बड़प्पन की थाह लेनी हो तो उसके स्वार्थ के दायरे को समझो. असल बात तो ये है कि हर आदमी स्वार्थी होता है, लेकिन हर आदमी के स्वार्थ का दायरा भी अलग-अलग होता है. कुछ लोगों के स्वार्थ के दायरे में बस उनके निजी हित आते हैं. उनका दायरा इतना छोटा होता है कि उनके बीवी-बच्चों को भी इसमें जगह नहीं मिलती. लेकिन कुछ लोग अपने निजी हितों के साथ-साथ अपने परिवार, मोहल्ले और शहर के हितों के लिये भी सोचते हैं. जबकि कुछ का दायरा पूरे देश और मानव समाज को अपने में समेट लेता है.

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके स्वार्थ की ज़द में पूरी दुनिया आती है. उन्हें मानवता के साथ-साथ पूरे जीव-जगत और पर्यावरण की भी चिंता रहती है. चेतना के स्तर पर ये लोग इतने बड़े होते हैं कि अंतरिक्ष में दो उल्का पिंडों का टकराव भी इनकी चिंता का कारण बन सकता है, क्योंकि ये उसके विनाशकारी असर को भी समझ रहे होते हैं. ये लोग ही दरअसल उस कैटेगरी के लोग हैं जिन्हें हम सही मायनों में महान कह सकते हैं, बड़ा कह सकते हैं. ऐसे लोग बुद्ध, ईसा और गांधी के रूप में भी हो सकते हैं और नीरजा भनोट, कैलाश सत्यार्थी और मलाला युसुफज़यी के रूप में भी.

अपनी कुल आमदनी का 85% हिस्सा दुनिया की भलाई के लिये दान कर देने वाले बिल गेट्स हों, चाहे मरणोपरांत अंगदान की हामी भरने वाला कोई आम आदमी. चाहे दक्षिण अफ्रीका की आजादी के लिये 26 साल जेल में रहने वाले नेल्सन मंडेला हों या अपनी फिल्मों के माध्यम से हास्य और करुणा के मिले-जुले संवादों से जीवन की प्रासंगिकता बयान करने वाले चार्ली चैप्लिन हों. हैं सभी बड़े और महान लोग ही, और जीवन इन सभी का बड़ा है. ऐसे लोगों को जीवन की नश्वरता और कफन में ज़ेब न होने की बात का बाकायदा इल्म होता है. वो कहते हैं न!

इक फ़कीर ने जिंदगी की कुछ यूं मिसाल दी
मुट्ठी में ले के धूल, हवा में उछाल दी

मेरी समझ का एक दौर ऐसा भी रहा था जब मैं किसी व्यक्ति की दुनिया और समाज को बदलने की क्षमता को ही उसकी महानता का प्रमाण मानता था. लेकिन ये ठीक बात नहीं है. इस हिसाब से तो हिटलर, गद्दाफ़ी और ओसामा बिन लादेन जैसे लोग महान कहे जाएंगे! महानता, बड़प्पन और जिंदगी के सारे मालूम फलसफों से निपटारा कर के अब जब मैं अपनी बात के अंतिम पड़ाव पर हूं, तो मुझे सालों पहले पढ़ी कृश्न चंदर की ये बातें याद आ रहीं हैं-

“अपनी जिंदगी में तुमने क्या किया? किसी से सच्चे दिल से प्यार किया? किसी दोस्त को नेक सलाह दी? किसी दुश्मन के बेटे को मुहब्बत की नज़र से देखा? जहां अंधेरा था, वहां रौशनी की किरन ले गये? जितनी देर तक जिये, इस जीने का क्या मतलब था?”

इन बातों को मैं जिंदगी के लिटमस टेस्ट की तरह समझता हूं. अपनी जिंदगी की सार्थकता या अपनी खुद की महानता मापनी हो, तो इनको पैमाना बनाने में कोई हर्ज़ नहीं है.
समझे बाबू मोशाय!

Source – The lallanTop

Share

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *