स्मृति ईरानी के संसद पहुंचने की कहानी आज से 150 साल पहले ही लिख दी गई थी

इस लोकसभा चुनाव में 724 महिलाएं चुनाव में उतरीं. उनमें से 78 चुनी गईं. सांसद बनने के लिए. अब ये संसद जाएंगी. लोकसभा में बैठेंगी. सवाल पूछेंगी. कानून बनाने में अपना रोल निभाएंगी.

संख्या के हिसाब से देखें, तो ये 17वीं लोकसभा महिलाओं की सबसे बड़ी लोकसभा है. पिछली बार केवल 61 महिलाएं आई थीं. 543 सीटों में से सिर्फ 61 पर. 2009 में तो 59 ही थीं. खैर, वो बातचीत फिर कभी.

संसद में महिलाओं के 33 फीसद आरक्षण के बारे में पढ़ा होगा आपने. इस पर बहस-मुबाहिसा चलता रहता है. जब पहली लोकसभा बनी थी, तब उसमें 24 महिलाएं थीं. अधिकतर कांग्रेस से. एनी मैस्केरेन और राजमाता कमलेन्दु मति निर्दलीय थीं. पहले लोकसभा चुनाव 1951-52 में हुए थे. उस बात को 67 साल बीत चुके हैं. 24 से ये संख्या 78 तक पहुंची है.

लेकिन महिलाओं का संसद में आना आसान नहीं रहा. कभी नहीं रहा.

भारत ने आज़ादी के साथ ही महिलाओं को चुनाव लड़ने और वोट देने का अधिकार दिया. कई बड़े-बड़े तीसमारखां देश भी ये नहीं कर पाए थे. इतिहास में पीछे चलें थोड़ा, तो पाएंगे कि पुराने से भी पुराने समय में, महिलाओं को राजनीति में भाग लेने की इजाज़त नहीं थी. अरस्तू, अंग्रेजी में Aristotle, राजनीति विज्ञान यानी पॉलिटिकल साइंस के जनक कहे गए. उन्होंने ये कहा कि भई, राजनीति में हिस्सा लेने का हक़ मिडिल क्लास को भी होना चाहिए. लेकिन उनके इस मिडिल क्लास में विदेशी, ग़ुलाम, और औरतें शामिल नहीं थे.

आज की दुनिया में खुद को लीडर ऑफ द फ्री वर्ल्ड (सीधे शब्दों में दुनिया का दादा) कहने वाला अमेरिका भी जब आज़ाद हुआ था, तब वहां की औरतों के पास वोट डालने, या एक्टिव राजनीति में हिस्सा लेने का हक़ नहीं था. गुलामों, और प्रॉपर्टी रहित लोगों के पास भी नहीं था. 1820 तक आते-आते सभी श्वेत पुरुषों को वोट डालने का हक मिल चुका था. लेकिन महिलाएं इसमें शामिल नहीं थीं. इतिहास लिखने वाले बताते हैं कि उस समय जो चलन में था, उसे ‘Cult of True Womanhood’ कहते थे. सच्चे स्त्रीत्व की डेफिनिशन ये थी कि आप शांत रहो, पति और परिवार ही आपकी प्राथमिकता रहेंगे. 1870 तक आते आते अश्वेत पुरुषों को भी वोट डालने का हक़ मिल गया. महिलाएं अब भी इस लिस्ट से बाहर थीं. उन्होंने आवाज़ उठाई. एलिज़ाबेथ कैडी स्टैन्टन, लूक्रेशिया मॉट, सूज़न बी एंथनी कुछ जाने-माने नाम रहे इस पूरे आंदोलन के.

अमेरिका में बहुत उठापटक हुई. गृहयुद्ध हो गया. वो अलग लम्बी कहानी है, फिर कभी. लेकिन जब अश्वेत पुरुषों को वोट का अधिकार मिला, तो महिलाओं के वोटिंग के अधिकार को भी समर्थक मिल गए. कौन? श्वेत पुरुष. उनको लगा, कि अश्वेत मर्द वोट करेंगे, तो उनके वोटों जितनी श्वेत महिलाएं वोटिंग करेंगी. और इस तरह हिसाब बराबर हो जाएगा. जैसे रामायण-महाभारत सीरियल में एक तरफ से तीर चलता था, तो दूसरी तरफ से तीर चलाकर बराबर कर दिया जाता था. और दोनों खत्म हो जाते थे, कुछ वैसा समझिए. एक समय पर श्वेत महिलाएं और अश्वेत पुरुषों के गुट एक-दूसरे के विरोधी समझे जाने लगे थे. लेकिन बाद में ये साथ आए. साल 1920 आते-आते महिलाओं को भी वोट डालने का अधिकार मिल गया. 26 अगस्त 1920 को संविधान में 19वां संशोधन हुआ. उसी साल 2 नवम्बर को तकरीबन 80 लाख अमरीकी महिलाओं ने मतदान किया.

ऐसा ही कुछ इसी समय के आस-पास इंग्लैंड में भी हो रहा था. वहां पर भी Suffragette movement चल रहा था. शुरू करने वाली थीं एमेलिन पैंकहर्स्ट. इन्होंने शुरू किया विमेंस सोशल एंड पॉलिटिकल यूनियन (WSPU). इसके जरिए उन्होंने महिलाओं के वोट देने के अधिकार के लिए आंदोलन चलाए. ये 1903 के आस पास का समय था. उनकी बेटी क्रिस्टाबेल पैंकहर्स्ट भी इस आंदोलन में शामिल हुईं. पोस्टर्स बनाए. अपनी आवाज़ दी. महिलाओं के लिए वोट डालना उस समय इस तरह देखा जाता था, मानो कोई जिराफ कटोरे में तैरने की कोशिश कर रहा हो. उनकी इस मूवमेंट को नीचा दिखाने के लिए बहुत जतन किए गए. उन्हें कुलटा, घरफोड़नी जैसे विशेषण दिए गए. कहा गया कि औरतें वोट डालेंगी तो मर्द क्या करेंगे. जो औरतें वोट डालेंगी उनके पति नपुंसक हो घर बैठे रहेंगे. बच्चे पालेंगे. इस तरह की बातें पोस्टरों पर छापी गईं. विज्ञापनों में निकाली गईं. लेकिन औरतों ने हार नहीं मानी.

पुलिस के हमलों, और लोगों की धक्कम पेल से बचने के लिए जूजूत्सु (एक तरह का मार्शल आर्ट होता है) सीखा कई महिलाओं ने. ताकि सड़क पर उतर कर प्रदर्शन करें तो खुद की सुरक्षा कर सकें. मूवमेंट के जाने-माने नामों के इर्द-गिर्द ये महिलाएं उनको पुलिस और दूसरे लोगों से सुरक्षा देती हुई चलती थीं.

जब 1918 में रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट पास हुआ, तब 30 साल से ऊपर की उम्र वाली औरतों को वोट का अधिकार मिला, वो महिलाएं, जिनके पास अपने घर भी थे. लेकिन इसी के साथ उन पुरुषों को भी वोट का अधिकार मिला जो कामगार थे, और जिनके पास प्रॉपर्टी नहीं थी. उनको तब तक वोटिंग का अधिकार नहीं मिला थ. उनके लिए भी मूवमेंट में हिस्सा लेने वाली औरतों ने ही आवाज उठाई. तब जाकर तकरीबन 56 लाख पुरुषों को वोटिंग का अधिकार मिला.

1928 में जाकर सभी महिलाओं को वोटिंग का अधिकार मिला जिनकी उम्र 21 साल से ऊपर थी. ये तब हुआ जब रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट में दूसरा संशोधन हुआ. तारीख थी 2 जुलाई, 1928. तारीख इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके दो हफ्ते पहले 14 जून, 1928 को एमेलिन पैंकहर्स्ट ये दुनिया छोड़ कर चली गई थीं. जिस मूवमेंट की शुरुआत कर उन्होंने अपनी जिन्दगी उसके नाम कर दी, उसी आंदोलन की सबसे बड़ी जीत देखने के लिए जीवित नहीं रहीं.

Source – Odd Nari

   
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