सुधा दीदी.
कानों के पीछे अगर का इत्र लगाया करती थीं. पास से गुजरतीं, तो देर तक कमरा महकता. गाल पर हाथ फेर देतीं, तो जी करता हथेलियों में मुंह छुपा कर बैठ जाएं. उन्हें जाने ना दें. उनकी बनाई रोटियों से भी वैसी सी ही खुशबू आती. शादी-ब्याह में भी जब सबका सजना-धजना चल रहा होता, सुधा दी कभी किसी की साड़ी की चुन्नट ठीक करतीं, कभी बाल बनातीं. खुद हमेशा आखिर में तैयार होती थीं. फिर भी अलग से चमकतीं. बड़े होते हुए यही लगता था, लड़की हो तो सुधा दी जैसी. सब उनकी मां को बताते थे कितनी प्यारी लड़की पाई उन्होंने. उनके बहाने हम बार-बार कूदकर पड़ोस वाले घर चले जाते. कंजी आंखों में उनके एक अलग सा ही ममत्व दिखाई देता था. हमें लगता, उनके बच्चे होंगे तो कितने प्यारे लगेंगे. सबको उनकी शादी का इंतज़ार था. हम इसलिए कि उनको दुल्हन बनते देखेंगे. कितनी सुंदर लगेंगी.
लगीं भी.
जिस दिन ब्याह हुआ, बैंगनी लहंगे में एकदम ही अलग दिखाई दे रही थीं. लेकिन चेहरे पर वो चमक नहीं थी. हम तो बच्चे थे. क्या ही समझते. आंटियां खुसर-फुसर करती सुनाई दे गई थीं.
‘लइकी के मन नइखे बुझाता’.
‘सब सादी भर के देर बा. मन लग जाई त चेहरो खिल जाई.’
साल भर बाद सुधा दी मिलने आईं. अपने गदबदे से पहलौठी के लाल को लेकर. सबके गले लगीं. इस बार हम भी उनके गले मिल लिए. विदाई के समय कहां ही मिलना हो पाता. इस बार उनके गले मिलने में कुछ अलग-सा महसूस हुआ.
कुछ सेकंड अधिक ठहर गए.
उनकी गर्दन के मोड़ पर पड़ा बल कुछ ज्यादा सुकून भरा लगा.
उन्होंने अलग होते हुए फिर से गाल पर हाथ फेर दिया.
इस बार उनके हाथ को जाने देने का मन नहीं हुआ. एक बार सोचा, उनको रोक लूं. पर उन्होंने धीरे से चूमकर हाथ छोड़ दिया. नजरें उठाईं. उन कंजी आंखों में इतने करीब से आंसू पहली बार देखे थे. वो आंसू टपकने नहीं पाए थे. शायद सिर्फ मुझे दिखाई दिए. मुस्कुराती हुई वो चली गईं. अपने बेटे को संभालते हुए.
जाते-जाते ठिठोली कर गईं,
‘इसकी शादी में बुलाइएगा. कितनी बड़ी हो गई है. हम भी आएंगे’.
उस दिन पहली बार एहसास हुआ, खोखली हंसी कैसी होती है. सुधा दी के एक बच्चा और हुआ. मिलने आती रहीं. हर बार उनका गले मिलना ऐसा ही होता. कुछ सेकंड. लाल माणिक की अंगूठी वाली उनकी उंगली कुछ देर के लिए गालों पर फिर जाती. जाते हुए कंजी आंखों में तैरते कुछ आंसू. जो सिर्फ मुझे दिखाई देते. अगले दिन तक मेरा टॉप उनके इत्र की खुशबू से महकता रहता.
एक दिन पता चला, वो अपने पति के साथ केरल चली गईं. वहां से उनकी खबर कुछ दिन तक आती रही. फिर हमारे पड़ोस वाले भी घर बदल कर चले गए. सुधा दी से बात बंद हो गई.
उनके बाद किसी ने गालों पर उस तरह हाथ नहीं फेरा. किसी के चेहरे पर आए बालों को परे कर देने की इच्छा नहीं हुई. किसी के गले मिलने पर चंद सेकंड और ठहरने की इच्छा नहीं हुई. सुधा दी अपने साथ वो खुशबू ले गईं. वो गले मिलना ले गईं. किसी के लौटाने की कोई उम्मीद नहीं छोड़ी. एक दिन ट्रेन में किताब पढ़ती एक लड़की के हाथ में वैसी अंगूठी देखी थी. किताब और चेहरे से पहले वो अंगूठी दिखी. एक झटके में दिल ने न जाने क्या-क्या सोच लिया. किताब के पीछे सुधा दी होंगी. गले लगाएंगी. हाथ फेर देंगी. मैंने अपने दिल को इतनी जोर से धड़कते हुए पहले कभी महसूस नहीं किया था. तब भी नहीं जब बोर्ड के रिजल्ट आने वाले थे.
क्या मुझे सुधा दी से प्यार था?
मुझे नहीं मालूम.
क्या उनको मुझसे था? मैं नहीं कह सकती.
लेकिन जब कल सिनेमा हॉल में कुहू का हाथ चूमती स्वीटी दिखी, उस पल में मेरे सामने सिर्फ और सिर्फ सुधा दी का चेहरा नज़र आया. उनका हंसना. उनकी अंगूठी. उनका अगर वाला इत्र. उनके गले में पड़ी पतली सी चेन जो इतनी महीन थी कि दूर से पता भी न चलती.
सब कुछ. उस एक पल में.
सिनेमा हॉल में फिल्म देखने का एक फायदा है. अंधेरा हो जाता है. आवाज़ तेज होती. तो आंसू दिखते नहीं, सिसकी सुनाई नहीं देती. चार दोस्तों के बीच सफाचट निकल आने का मौका यहीं होता. किसी को पता नहीं था कि स्क्रीन पर जो चल रहा था. वो किसी और की जिन्दगी का सच है. वो सिर्फ स्वीटी का नहीं, सुधा दी का भी सच है. वो सच जो उन्होंने स्टेज पर से कहना चाहा. फटॉग्रफर के लेंस में सीधे देख कर बोला. पर होंठ बंद थे. ये बात समझने में देर हुई. पर क्या मेरे अंदर उनको रोक सकने की कूवत थी?
जब स्वीटी को बार-बार लंदन जाने के लिए तड़पते देखा. तो सोचा. क्या सुधा दी ने कोशिश की होगी? कहीं दौड़ आने की? कहीं निकल पाने की? साहिल के सामने बैठी शादी करने को तैयार स्वीटी में मुझे सुधा दी नज़र आ रही थीं. फिर लगा, दौड़ कर आतीं, तो क्या मेरे पास आतीं? क्या सोचतीं?
अधूरा होना बहुत रोमांटिसाइज करते हैं लोग. कोई आएगा, और वो खालीपन भर देगा. उस एक के इंतज़ार में लोग क्या-क्या कर गुजरते हैं. कोई कवि हो जाता, कोई पागल, कोई कुछ लिखता, कोई नसें काट कर सोचता इस खून से नाम लिख दूंगा तो मान जाएगी.
लड़की का प्यार खून की दरकार नहीं रखता. ये बात मुझे जब तक समझ आई, तब तक सुधा दी बहुत दूर चली गई थीं. पर स्वीटी और कुहू बनकर परदे पर वापस आने में उन्हें एक दशक से कुछ कम ही वक़्त लगा.
सिनेमा लोग असलियत से दूर जाने के वास्ते देखते हैं. लेकिन जब वही सिनेमा गर्दन भींच कर खौलते पानी में डाल दे तो इंसान कहां जाए.
लेस्बियन. सुनने में बड़ा ही अजीब सा शब्द हो गया है. पॉर्न देखने वालों की वजह से, या मीडिया में एक इमेज की वजह से. पता नहीं. फिल्म में कहीं भी इस शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ. एक गे लड़के को भी हिजड़ा कहकर छोड़ दिया गया. लेस्बियन सुनते ही दिमाग में आती है इमेज. लड़कियां जो लड़कियों से प्यार करती हैं. लेकिन ये इमेज बहुत भोथरी है. वो क्या कहते हैं. इसमें पिक्सेल कम हैं. जैसे लो क्वालिटी की कोई ब्लू फिल्म. इसमें लेस्बियन औरतें सिर्फ बेडरूम तक लेस्बियन हैं. मर्दों की नज़र के लिए लेस्बियन हैं. अभी एक पुरुष आएगा, और उनका ‘लेस्बियन’ होना बंद हो जाएगा. वो लेस्बियन इसलिए हैं क्योंकि उनको सही ‘पुरुष’ नहीं मिला. ये मेनस्ट्रीम की लेस्बियन औरतें कन्वीनियंस के लिए औरतों से प्यार करती हैं.
ये मेनस्ट्रीम की लेस्बियन औरतें अंदर से पुरुष बनने की चाह रखती हुई सी लगती हैं. बिना उसके पूरी हुई नहीं लगतीं. ठीक उसी तरह जैसे हर गे आदमी भीतर से औरत बनने की चाहत रखे दिखाई देता है. सजने-धजने से लेकर बोल चाल तक. औरत भी नहीं, एक औरत का कैरिकेचर.
इन कैरिकेचरों के बीच सुधा दी कहां मिलती हैं? नहीं मिलतीं.
Blue Is The Warmest Colour एक फ्रेंच फिल्म है. दो लड़कियों के बीच की कहानी. एमा और एडेल. एमा के नीले बाल एडेल का आसमान बन जाते हैं इस फिल्म में. वो नीला रंग, जिसे देख कर उसे एहसास होता है कि वो उसे सच में किससे प्यार है. उनके बीच की दूरी फिल्म में फैलते जाते आसमान का बदलता रंग है. जिसमें नीला सबसे गुनगुनाहट भरा है. फिल्म के आखिर में एमा की बनाई एक तस्वीर एडेल की आंखों में बस जाती है, इस तस्वीर में वो खुद है. लेकिन सबसे ख़ास बात ये है, कि इसमें एमा की नज़र से वो खुद को देख रही है.
प्रेम सिर्फ सामने वाले को देखना नहीं होता. ये बात फिल्में बार-बार बता चुकी हैं. अंतर बस ये है कि एक लड़की का लड़की से प्यार करना आईने में उसका खुद को देखना है. उसके शरीर का हर हिस्सा जिससे वो वाकिफ़ है, उसे एक नए नज़रिए से अपने सामने खड़े देखना, उसके लिए एक अलग अनुभूति है. कैसा लगता है जब सारी जिन्दगी कोई बताए कि एक लड़की का पूरा आकाश किसी की मांसल बाहों और चौड़ी छाती के आगोश में बैठने तक है. और अचानक उसे ये मालूम हो कि उसके अपने हिस्से का आसमान किसी की नाज़ुक उंगलियों को अपने होठों से लगा कर वहीं छोड़ देने में है. किसी के लंबे बालों पर हाथ फेरने में है. जिस शरीर को उसने पूरी जिन्दगी जाना, उसके भीतर एक और औरत बसती है. जो खुद से प्यार करती है. जिसे दुनिया गलत मानती है. जिसे शायद नरक में भी जगह नहीं मिलेगी. जिसे दुनिया के थू-थू करने को चुपचाप झेल लेना चाहिए. जिसे मुंह बंद कर एक लड़के से शादी कर लेनी चाहिए. जिसे बच्चे जनने चाहिए. जिसे दुनिया शादी कहती है, उसे प्रेम मान कर खुश हो जाना चाहिए.
जो उससे खुश नहीं होतीं, वो सुधा दी और स्वीटी के बीच कहीं अटक कर रह जाती हैं. उन्हें उनकी जिंदगी में कोई साहिल मिर्ज़ा नहीं मिलता. कोई साहिल नहीं मिलता. उनके पापा बलवीर चौधरी की तरह किचन में जाकर खाना बनाना इंजॉय करने वाले पिता नहीं होते. उनके पिता रोते नहीं. उनके पिता फोन कर फुसफुसाते हैं. फिर ये लड़कियां मार दी जाती हैं. क्योंकि दुनिया कहती है कि लड़की को पूरा करने वाला एक लड़का होता है. लड़के को पूरा करने वाली एक लड़की. बाकी सब गलत है. इससे परे जो जाएगा, उसे जीने का कोई हक नहीं. प्रकृति उसे जीने नहीं देगी. उससे पहले हम, उसे जीने नहीं देंगे.
इस तरह कई लड़कियां ये जाने बगैर गुज़र जाती हैं, कि कोई उनके गालों पर भी हाथ फेर सकता था. कोई उनको गले से लगाकर उनकी पीठ ऐसे सहला सकता था जैसे किसी ने नहीं किया. कोई उनकी आंखों में पड़े काजल को हौले से पोंछ कर ठीक कर सकता था.
जो जान भी जाती हैं, वो सुधा दी की तरह कहीं चली जाती हैं. सब कुछ निभाते हुए. सब कुछ संभालते हुए. अपनी अंगूठी में एक किशोर होती लड़की का दिल बांधे हुए. किसी के नाज़ुक गालों पर उंगलियां फेरते हुए.
Source – Odd Nari