बंगला साहित्य के उत्कर्ष के पर्याय गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर देश के महानतम कवियों, कथाकारों, उपन्यासकारों, नाटककारों, चित्रकारों, संगीतकारों और शिक्षाविदों में एक थे. भारतीय मनीषा के इस शिखर पुरूष का व्यक्तित्व किसी किसी प्राचीन ऋषि के जैसा था जिसमें न सिर्फ हमारे प्राचीन विवेक में गहराई तक उतरने का विवेक था, बल्कि भविष्य की आशावादी दृष्टि भी थी. उन्हें पढ़ते हुए मानवीय अनुभव और विवेक के उच्च शिखर के सामने खड़े होने की विरल अनुभूति होती है.

अपने काव्य ‘गीतांजलि’ के लिए विश्व का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान नोबेल पुरस्कार हासिल करने वाले वे पहले भारतीय साहित्यकार थे. उन्होंने अपने जीवन में साहित्य की सभी विधाओं में भरपूर रचा. शिक्षाविद के रूप में शांतिनिकेतन की स्थापना शिक्षा को अपनी संस्कृति से जोड़ने का उनका अभिनव प्रयास था. उनकी कहानियों पर बंगला में कई कालजयी फिल्में बनीं. हिंदी में उनकी कहानियों पर बनी फिल्मों में प्रमुख हैं – काबुलीवाला, उपहार, बलिदान, मिलन, कशमकश, चार अध्याय और लेकिन. अपने विराट मानस की व्यापकता में संपूर्ण मानवता को घेरने वाले इस विराट रचनाकार की जयंती पर उनकी स्मृतियों को नमन, उन्हीं की एक कविता के साथ !

मैं मरना नहीं चाहता
इस सुंदर संसार में मनुष्यों के बीच
मैं बचा रहना चाहता हूं
जीवंत हृदय के बीच यदि जगह पा सकूं
तो इन सूर्य-किरणों में, इस पुष्पित कानन में
मैं अभी जीना चाहता हूं
पृथ्वी पर यहां प्राणों की तरंगित क्रीड़ा
कितने मिलन, कितने विरह
कितनी हंसी, कितने आंसू
मनुष्य के सुख-दुःख को संगीत में पिरोकर
यदि अमर आलय की रचना कर सकूं
तो यहां मैं जीना चाहता हूं
यदि यह संभव नहीं तो जब तक रहूं
तुम सबों के लिए सुलभ रहूं
संगीत के नये नये पुष्प खिलाता रहूं
हंसते हुए फूल तुम ले लेना
उसके बाद अगर वे फूल मुरझा जायें
तो उन्हें फेंक देना !

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Source – Prabhat khabar

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