क्या किसी के मरने पर ठहाके लगते हैं, सवाल अटपटा जरूर है, पर काका हाथरसी तो यही चाहते थे। ऐसा हुआ भी। ठहाकों के बादशाह काका हाथरसी की शवयात्रा ऊंटगाड़ी पर निकली और अंतिम संस्कार के समय श्मशान स्थल पर कवि सम्मेलन हुआ, जिसमें देश के प्रसिद्ध कवि अशोक चक्रधर मौजूद थे। संचालन ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि सुरेश चतुर्वेदी ने किया। इसे संयोग ही कहेंगे कि काका हाथरस का 18 सितंबर को जन्म व अवसान दिवस एक ही होता है।
काका ने विदेशों में भी फहराई हास्य पताका
हिंदी काव्य मंचों पर हास्य को वरीयता दिलाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। देश ही नहीं, विदेशों में भी उन्होंने हिंदी काव्य की पताका को फहराया और हास्य सम्राट के रूप में ख्याति पाई। केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया। वसीयत में दर्ज उनकी इच्छा पूरी करने के लिए ही उनके अवसान के दौरान शव ऊंटगाड़ी में रखकर शवयात्रा निकाली गई थी। उनकी मृत्यु के बाद आंसू नहीं लोग ठहाके लगाते हुए नजर आए।
काका की गाथा
18 सितंबर 1906 को शिव कुमार गर्ग के घर जन्मे प्रभुलाल गर्ग का नाटकों में मंचन के दौरान काका पड़ा। बेहद गरीबी में पले-बढ़े काका ने देश-विदेश में न सिर्फ अपना नाम रोशन किया, हाथरस को भी पहचान दिलाई। जिस वक्त काका का जन्म हुआ देश में जानलेवा बीमारी प्लेग फैली हुई थी। इसी बीमारी ने उनके पिता की जान ले ली। पति की मौत होने पर मां बरफी देवी उन्हें इगलास अपने मायके में ले गईं। वहां उनका बचपन बीता। किशोरावस्था में वे हाथरस लौटे और एक दुकान पर पट्टियों पर पेंट के काम के साथ पढ़ाई भी शुरू की। उनकी रुचि बचपन से ही कविता व साहित्य में थी। उन्होंने सबसे पहली कविता भी उन वकील साहब पर लिखी जिनसे वे अंग्रेजी की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।
प्रभु से बने काका
प्रभुदयाल गर्ग का नाम काका किशोरावस्था में ही पड़ गया। वे लाउडस्पीकर लगाने के साथ नाटकों में मंचन करते थे। अग्रवाल समाज के कार्यक्रम में नाटक मंचन के दौरान उन्होंने काका का किरदार निभाया। अगले दिन वह जब बाजार से निकले तो लोगों ने उन्हें काका कहकर पुकारना शुरू कर दिया। ब्रजभाषा व संस्कृति का ज्ञान उन्हें विरासत में मिला। अंग्रेजी व उर्दू पर भी उन्होंने अच्छी पकड़ बना ली। उन्होंने अपने मित्र रंगी लाल के सहयोग से चित्रकारी भी सीखी। उन्होंने हारमोनियम, तबला, बांसुरी आदि पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। सबसे पहले उन्होंने मथुरा से अपनी पत्रिका का प्रकाशन किया। बाद मे खुद की संगीत प्रेस की स्थापना की, जो आज भी हाथरस में संचालित है।
देश भर में फहराया परचम
काका ने हास्य कविताएं लिखने के साथ उन्हें हिंदी काव्य मंचों पर लाने के लिए किशोरावस्था से ही संघर्ष किया। इसे लेकर उन्हें कई बार अपमान का सामना भी करना पड़ा। शुरूआत में वे प्रयास करते थे, मगर काव्य मंचों पर मौका कम ही मिलता था। मुंबई के एक मंच पर उन्होंने उस समय जवरन काव्य पाठ किया जब हास्य की कोई जगह नहीं थी। उनका प्रयास सफल रहा। 1957 में पहली बार काका दिल्ली के लाल किले पर आयोजित कवि-सम्मेलन में आमंत्रित किए गए। सभी आमंत्रित कवियों से आग्रह किया गया था कि वे ‘क्रांति पर कविता करें। अब समस्या यह थी कि काका ठहरे हास्य-कवि अब वे क्रांति पर क्या कविता करें? क्रांति पर तो ओज कवि ही काव्यपाठ कर सकते थे। जब कई प्रसिद्ध ओज कवियों के कविता पाठ के बाद काका का नाम पुकारा गया तो ‘काका ने मंच पर ‘क्रांति का बिगुल कविता सुनाई। काका की कविता ने अपना झंडा ऐसा गाढ़ा कि सम्मेलन के संयोजक गोपालप्रसाद व्यास ने काका को गले लगाकर मुक्तकंठ से उनकी सराहना की। इसके बाद काका हास्य-काव्य का ध्रुव तारे बने और वह दुनिया से जाने के बाद भी चमक रहे हैं। उन्हें केंद्र सरकार ने पदमश्री की उपाधि से भी सम्मानित किया। उनकी हर कविता में काकी का जिक्र होता था।
पहले खुद पर हंसे काका
काका ने दूसरो को हंसाने से पहले खुद पर ही कविता पाठ किया। उन्होंने थके-हारे इंसान को हास्य कविता के माध्यम से हंसने, गुदगुदाने व ठहाके लगाने को मजबूर कर दिया।उन्होंने लोगों को यही मंत्र दिया- भोजन आधा पेट कर, दुगना पानी पीउ, तिगुना श्रम, चौगुन हंसी वर्ष सवा सौ जीउ । यह बात अलग है कि वह मात्र 89 वर्ष ही जी सके और 18 सितंबर 1995 को हो इस जग से अलविदा कह गए।
बेटे के कहने पर नाम में जोड़ा हाथरसी
काका हाथरसी के बेटे लक्ष्मीनारायण गर्ग वर्तमान में देहारादून में रह रहे हैं। उन्होंने बताया कि नाटक के मंचन में काका का किरदार देखकर शहर के लोग पिता जी को काका कहने लगे। इस पर उन्होंने अपना नाम प्रभुदयाल गर्ग काका रख लिया। तब लक्ष्मीनारायण गर्ग 8 साल के थे। उन्होंने पिता जी को सुझाव दिया कि वह अपने नाम में हाथरसी शब्द जोड़े। पिता काका को यह सुझाव पसंद आया और उन्होंने अपना नाम काका हाथरसी रख लिया।
काका की हास्य कविताएं सीधे दिल में उतरती थी
मुरसान गेट स्थित काका हाथरसी स्मारक पर मंगलवार को पद्मश्री काका हाथरसी के जन्म-अवसान दिवस पर विशेष आयोजन हुआ। इस दौरान काका की साहित्य सेवा को याद कर उन्हें भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी गई। उद्घाटन पूर्व ऊर्जामंत्री व सादाबाद विधायक रामवीर उपाध्याय ने किया। अध्यक्षता पूर्व मंडलायुक्त डॉ. रविकांत भटनागर ने की। मुख्य अतिथि सांसद राजेश दिवाकर की पत्नी श्वेता दिवाकर व पूर्व मंडलायुक्त की पत्नी अनुपमा भटनागर थीं। रविकांत भटनागर ने कहा कि काका का स्मारक जल्द ही संग्रहालय के रूप में विकसित होगा। श्वेता दिवाकर ने काका को हाथरस की शान बताकर उनकी स्मृतियों को स्थाई बनाने के लिए सांसद राजेश दिवाकर के प्रयासों पर प्रकाश डाला। डॉ. विजयदीप ने कहा कि काका को समयानुसार हास्य का डॉक्टर कहा जा सकता है। प्रवीन ने कहा कि काका ने हाथरस का नाम पूरे विश्व में फैलाया। पूर्व ब्लाक प्रमुख ओंकार ङ्क्षसह वर्मा ने कहा कि काका हाथरस ही नहीं बल्कि पूरे देश की शान थे। हरिमोहन शर्मा ने कहा कि काका हाथरसी जैसे सपूत हाथरस में सदैव पैदा होते रहे हैं। कार्यक्रम के संयोजक गोपाल चतुर्वेदी ने कहा कि काका की लिखी पंक्तियां जीवन और मृत्यु में फर्क मिटा देती हैं। यथा- ‘आंख खुले तो जिंदगी, बंद होय तौ मौत। काका एक जिंदादिल इंसान थे। विद्यासागर विकल ने कहा कि काका की स्मृतियों को चिरस्थायी बनाने के लिए किसी ट्रेन या स्टेशन का नाम काका के नाम पर होना चाहिए। रमेश चंद्र रत्न ने कहा कि काका ने उनको समझौतारत्न की उपाधि दी थी। अभियोजन अधिकारी सुबोध कुमार शर्मा ने कहा कि काका की कविताएं सरल व सहज हैं। कार्यक्रम में प्रमुख रूप से काका हाथरसी स्मारक समिति के सचिव डॉ. बीपी सिंह, पूर्व प्राचार्य डॉ. एससी शर्मा, पूर्व पालिकाध्यक्ष अगम प्रिय सत्संगी, लालता प्रसाद जैन, श्यामसुंदर शर्मा, रत्नेश रत्न, दयाराम शीतल, प्रभूदयाल गर्ग, डॉ. गुरुदत्त भारतीय, डॉ. विजयदीप, ब्रजेश वशिष्ठ, ब्रजेश शुक्ला, जितेंद्र स्वरूप फौजी, नवीन अरोरा, कैलाशचंद्र जैन, केके दीक्षित, प्रशांत शर्मा, शशांक बंसल, शिवशंकर गुलाठी आदि मौजूद रहे।
चेहरे पर रहती सदा चिरपरिचित मुस्कान
कवि रामजी लाल शिक्षक ने कहा, चेहरे पर रहती सदा चिर-परिचित मुस्कान, लंबी दाढ़ी बन गई काका की पहचान।वासुदेव उपाध्याय ने सुनाया, ‘कल सड़क पर मैने देखा नया एक तमाशा, एक लड़की ने मार दिया जोर का एक तमाचा। माधव शर्मा ने सुनाया, ‘मैं माधव का पांचजन्य हूं, मैं दिनकर का कुरुक्षेत्र हूं, पहले शब्दों की गरिमा हूं, कविता की नूतन प्रतिमा हूं। कवि चाचा हाथरसी ने सुनाया, ‘मंच पर सरदारों के सरदार थे, हंसी में हास्य के व्यवहार थे।इसके अलावा कवि प्रदीप पंडित, बाबा देवी सिंह निडर आदि ने भी काव्य पाठ किया।
बेहतर कार्य पर मिला सम्मान
पिछले साल तक काका हाथरसी की प्रतिमा पर छतरी आदि नहीं थी। अवस्थापना विकास निधि के जरिए कांच के फ्रेम में काका की मूर्ति को ढकवाया गया। इसके अलावा अन्य संसाधनों की व्यवस्था हुई। बेहतर कार्य कराने पर मंगलवार को आयोजित हुए कार्यक्रम में समिति के संयोजक गोपाल चतुर्वेदी और विद्यासागर विकल को प्रतीक चिह्न देकर समिति के पदाधिकारियों ने सम्मानित किया।
रोचक प्रसंग सुनाए गए
संगीत कार्यालय पर मंगलवार को काका हाथरसी का जन्म व महाप्रयाण दिवस मनाया गया। कर्मचारियों ने काका के छवि चित्र पर फूलमाला पहनाई। अपने छात्र जीवन में संगीत कार्यालय में कार्य कर चुके कवि नंदकिशोर निर्मोही ने अपना संस्मरण सुनाते हुए बताया कि काका ने ही उन्हें ङ्क्षहदी, उर्दू व ब्रजभाषा के शब्दों का भेद बताया। अपने अध्यक्षीय भाषण में शरण गोपाल ने काका के समय के अनेक रोचक किस्से सुनाए। जारी विज्ञप्ति में कहा गया है काका के सुपौत्र अशोक गर्ग ने अमेरिका के सेनेडिएगो नगर में आयोजित काका हाथरसी स्मृति समारोह में हजारों की संख्या में उपस्थित जन समुदाय को काका जी की अनेक रचनाएं सुनाईं।
Source – Jagran
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